Tuesday, March 9, 2010

Monday, February 15, 2010

एक सवाल आपसे

दोस्तों, प्रवाह के इस अंक तक वाणी 2009 आप सभी तक पहुँच चुकी है| मेरे मन में कुछ सवाल हैं, जो कि मैं आप सभी से पूछना चाहूंगी| सर्वप्रथम उन सभी लोगों को धन्यवाद, जिन्होंने वाणी की मेस साइनिंग करके हमें सहयोग दिया, जिसकी वजह से हम वाणी आप सभी तक पहुंचा सके| आप सभी के लिए एक सवाल –आपने वाणी की साइनिंग क्यों की? क्या इसलिए, कि कोई दोस्त, विंगी या सीनियर साइन करवा रहा था? या फिर इसका नाममात्र शुल्क? क्या आपने इस बात पर गौर किया है कि कॉलेज की वार्षिक पत्रिका को अपने लोकप्रिय होने का सबूत देना पड़ रहा है?
अगर गौर नही किया तो गौर कीजिये| आपके कॉलेज की वार्षिक पत्रिका का 2009 का अंक चंद आंकड़ों का मोहताज था| कल्पना कीजिये, हमारा गौरवशाली कॉलेज, उसकी उपलब्धियां और पता नही क्या क्या? और महसूस कीजिये हकीकत को, कि ऐसे संस्थान की वार्षिक पत्रिका कुछ महीनों पहले तक अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही थी| अगर आप जानना चाहते हैं कि इसकी वजह क्या है, तो वो वजह हैं आप| आप और आपका वो उदासीन रवैया जिसकी वजह से आपने अपने आप को एक दायरे में सीमित कर दिया है|
किसी के gtalk status में लगी हुई कोइ लिंक पढ़ने में आपको कोई हिचक नही है,भले ही वो हिंदी में हो,लेकिन वही बात अगर आपके हाथ में हिंदी पत्रिका की हो, तो आपके माथे पर सलवटें पड़ जाती हैं| अपनी बात कहने के लिए आप ब्लॉग, फेसबुक का प्रयोग करते हैं, लेकिन हिंदी में कुछ लिख कर देना आपकी शान के खिलाफ है, आखिर क्यों? क्यों आपको बात करते वक्त हिंदी बोलना या sms में हिंदी लिखते वक्त शर्म नही आती, लेकिन हिंदी लिखना या पढ़ना आपके लिए शर्म की बात हो गयी है?
ऐसा क्यों है की कोई अंग्रेजी पत्रिका पहली बार पढ़ने में आप हिचकते नहीं| उसे पढते हैं, कुछ असभ्यताओं की आलोचना भी करते हैं, दोस्तों से विचार भी बाँटते हैं| लेकिन किसी हिंदी किताब की बात हो, तो साँप सूंघ जाता है| अब वाणी को ही ले लीजिए, कितने कम लोगों को पता था की 'वाणी' भी हमारे कॉलेज की वार्षिक पत्रिका है, और उसका वही स्थान वही दर्जा होना चाहिए जो किसी अन्य प्रकाशन का हो|
देखिये मैं हिन्दी भाषा के लिए आन्दोलन नहीं कर रही हूँ, न ही ऊपर लिखी किसी भी बात के खिलाफ हूँ| मैं सिर्फ ये कहना चाहती हूँ की हम लोग अपनी एक पहचान को खोने की कगार पर हैं और यह गलत है, अगर हम इस दिशा में कोई कदम न उठायें|
वाणी- 2010 के लिए अपना योगदान दें और उसे अपना वही स्थान पुनः पाने में सहयोग करें| एक और नम्र निवेदन उन सभी लोगों से जिनहोने वाणी-2009 पढ़ी| अपनी प्रतिक्रिओं और विचारों से हमे अवगत कराएं| हमें बताइए अगले अंक से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं, और आप क्या परिवर्तन देखना चाहते हैं| उम्मीद है आप अपनी उस "वाणी" को मौन नही होने देंगे|
-हिना जैन
अपनी रचनाएँ हमें प्रेषित करें :-
Vaani.bits@gmail.com

Tuesday, November 3, 2009

काश! यह सपना सच होता

आँखें भारी हो रही थीं.. और ना जाने कब मैं नींद की आगोश में खो गया और स्वप्नलोक के उस धरातल पे जा गिरा जहाँ सैंकड़ों लोग हर समय निवास करते हैं | मैं भी उन सैंकडों लोगों का एक हिस्सा बन चूका था | उन सैंकड़ों लोगों का जो यहाँ सिर्फ एक ही मकसद से आये थे - झूम बराबर झूम |

पता नहीं कब मैं विचरते-विचरते वहां पहुँच गया | अरे ये क्या - यह तो अपना पुराना ऑडी है | और सामने ये कौन है | मेरे नज़रों के सामने के.के. की तस्वीर उभर आई | पर वो तो पिछले साल यहाँ आया था | और उस बात को तो बीते हुए मानों सालों हो गए हैं | पर फिर सामने कौन है और मेरे आस-पास ये बेकाबू जनता इतना उछल-कूद क्यों मचा रही है? और ना जाने कब ये सोचते-सोचते मेरे कदम भी थिरकने लगे | मैंने अपने आस पास उन सभी अपनों को पाया जिन्हें देखने की इच्छा मैं मन में दबाये हुए ज़िन्दगी बिता रहा था | अरे ये तो अपना हिन्दी प्रेस परिवार है | हाँ सब यहीं | कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ मैंने अपने मन से पूछा | मेरे सामने शंकर महादेवन बेदम(ब्रेथलेस) गाना गा रहा था और सभी लोगों के साथ मैं भी अपने हाथों को उठाकर इस ज़बर्दस्त प्रस्तुति का जयकारा लगा रहा था |

और तभी न जाने मेरे सामने से ऑडी ओझल होने लगी | मैं चिल्ला रहा था - ये क्या हो रहा है.. कोई मुझे पकङो.. कोई मुझे पकङो.. मुझे अभी और नाचना है | पर किसी क्या ध्यान मेरी तरफ था ही नहीं | कोई मुझे सुन नहीं पा रहा था और न ही कोई देख पा रहा था | और इस अदृश्य शक्ति के सामने मुझे हार मानना पड़ा |

पर जब वह भयभीत आँखें खुली तो नज़ारा बदल चूका था | मैं एम्-लॉन्स में पहुँच चुका था | लोग "बेरी-बेरी ब्लैकबेरी" के नारे लगा रहे थे | कभी किसी के धक्के खाता तो कभी किसी के | पर न जाने इस धक्के में वो माँ की गोद सा प्यार था | बड़ा अच्छा लग रहा था | और साथ ही साथ कुछ हसीन मुखड़ों का सामने से तर जाना इस धक्के को जैसे शुन्य सा कर दे रही थी | यहाँ पर मैं अपने कुछ पुराने दोस्तों के साथ था | वही दोस्त जिनके साथ तीन साल गुज़ारने के बाद जो बंधन बच गयी थी, वो थीं सिर्फ - यादें |
पता नहीं पलकों के नीचे दो बूँदें लुढ़क गयीं | आसमान पे देखा तो पूरा साफ़ | पर आँखें डबडबा गयी थीं | फिर न जाने रजत जयंती पर ही मुलाक़ात हो | पर कौन जाने कल हो न हो | कल कौन रहे और कौन नहीं | इसी सोच के साथ मैं उन सबके साथ आस पास के खाना चौपाटी पर गया और उनसे जॉब लगने की ट्रीट मांगी | सबने बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी कहा - जो चाहो लो | ऐसे मौके बार-बार थोड़े ही ना आते हैं | और मैं कुछ देर बाद अपने पराँठे का इंतज़ार कर रहा था |
तभी मुझे आभास हुआ कि वही अदृश्य शक्ति मुझे अपने दोस्तों से दूर कर रही है | मैंने सोचा कि बस इस बार नहीं | इस बार मैं इस शक्ति को तोड़ के रहूँगा | कोई मुझे अपने दोस्तों से अकेला नहीं कर सकता है | पर बाद में ख्याल मैं भी उस मूढ़ इंसान की तरह हर चीज़ को पकड़ के रखना चाहता हूँ | हर चीज़ छूट जाएगी | और इसी तरह मैंने हार मान ली | मैं इस अदृश्य शक्ति के साथ एक अनंत भंवर में बहता हुआ बहुत दूर आ गिरा |

यहाँ मुझे डर लग रहा था | मैंने आवाज़ लगाई - कोई है, कोई है | पर उस सुनसान सन्नाटे में एक सुई के गिरने की भी आवाज़ नहीं आई और ना ही मेरी अपनी आवाज़ | मेरा जी घबरा उठा | मैं फिर से चिल्लाया - कोई है, कोई है |
पर मानों मैं पाताल में था | मैं ओएसिस-०९ को याद करके रोने लगा और चिल्लाता रहा |

तभी मेरे रूम-मेट ने मुझे लात मार के उठाया और कहा - अरे भाई, सुबह पांच बजे डरा दिया तूने | क्या कोई सपना देख रहा था?
मैंने माफ़ी मांगते हुए कहा - हाँ यार, पर शायद यह सपना सच होता | और फिर से सो गया |
अभी ऑफिस में बैठा हूँ और उस सपने को याद करके बस यही सोचा रहा हूँ - काश! यह सपना सच होता !!!

प्रतीक माहेश्वरी
2006A3PS206P