हिन्दी के राजभाषा बनने पर हिन्दी में एम.ए. किए ‘हिन्दी सेवियों’ की भी पूछ बढ़ी। कोयला से ले कर रेल मन्त्रालय तक हिन्दी अधिकारियों के पद सर्जित हुये। बैंकों में तो अच्छे ग्रेड में हिन्दी अधिकारी लगे। ऐसा भी समय आ गया था कि हिन्दी-विषय केवल लड़कियां ही लेती थीं। समय बदला और प्राईवेट कोचिंग अकेडेमियों में रतन, प्रभाकर पढ़ाने वाले हिन्दी अधिकारी लगने लगे। ‘हिन्दी’ के साथ ‘अधिकारी’ शब्द लगा तो आदर सूचक था। वेतन और ग्रेड भी आकर्षक था। यहां हिन्दी सही मायनों में रोटी रोजी के साथ जुड़ी।
किसी भी भाषा को राजभाषा बनाना सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। मुगल काल में उर्दू-फारसी का चलन सरकार ने किया। आज भी गांव देहात के अनपढ़ बुजुर्ग सत्तर प्रतिशत उर्दू के शब्दों का प्रयोग जाने अनजाने में करते हैं। इसी तरह ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी को थोपा । आज भी ठेठ ग्रामीण महिलाएं कहती हैं, “आज मेरा मूड ठीक नहीं है या मैं बोर हो रही हूँ ।”
हिमाचल प्रदेश में ”हिमाचल प्रदेश अधिनियम,1975” पारित हुआ जिसके अनुसार प्रदेश की राजभाषा नागरी लिपि में हिन्दी घोषित की गई। इसी तरह की इच्छाशक्ति का परिचय दिया था हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मन्त्री शान्ताकुमार ने। उन्होंने सरकार से आदेश करवा दिये कि 26 जनवरी 1978 से सरकार का सारा कामकाज हिन्दी में होगा। इस आश्य की अधिसूचना 12 दिसम्बर 1977 का जारी की गई जिसमें मेडिकल कॉलेज, विधि विभाग और तकनीकी विभाग के अधीन औद्योगिक प्रशिक्षण को छोड़ कर सारा कामकाज हिन्दी में करने के आदेश थे। इस पर बहुत हाय-तौबा मची, हिन्दी टंकण यन्त्र न होने, हिन्दी स्टेनो-टाईपिस्ट न होने जैसे कई बहाने भी लगाए गये। किन्तु सरकार की इच्छा शक्ति थी तो हिन्दीकरण लागू हुआ। उस समय इसे हिन्दी में ”स्विच ओवर” कहा गया था। उस समय जो मुख्य सचिव थे, वे हिन्दी में हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते थे। सब वाधाओं के बाबजूद भी ‘स्विच ओवर’ हुआ। हिन्दी टंकण, आशुलिपि का प्रशिक्षण सरकारी स्तर पर दिया गया। अग्रेजी टंकण मशीनों की खरीद, अंग्रेजी टाईपिस्टों, आशुलिपिकों की नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया गया। जहां मुख्य मन्त्री जाते, रातों-रात सड़कों के मील पत्थर, सर्किट हाउसों के कमरे ‘कक्षों’ में बदल जाते। कोई भी अधिकारी मुख्य-मन्त्री को अंग्रेजी में फाईल प्रस्तुत नहीं कर सकता था। ऐसे में कई तरह के मजाक भी बने कि यदि कुछ अनुमोदित करवाना है तो हिन्दी में नोटिंग लिखो, सचिवों को हिन्दी पढ़नी आती नहीं, जो मर्जी हिन्दी में लिख डालो, अनुमोदित हो जाएगा।
हिन्दी के प्रचार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उर्दू-फारसी, अंग्रेजी तथा स्थानीय भाषाओं के शब्दों को ज्यों का त्यों अपना लिया जाए और सरल से सरल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाए। कुरता, पाजामा दरवाजा, खिड़की, कलम, दवात, स्कूल, अस्पताल, इंस्पेक्टर, बोर्ड, वारंट, डिग्री आदि ऐसे शब्द हैं जो आज एक ग्रामीण भी बोलता और समझता है। प्रचलन प्रयोग से फैलता है। आरम्भ में सचिवालय, मन्त्रालय, अभियन्ता, टंकक, अनुभाग, प्रशासन, आबंटन, अधीक्षक, निरीक्षक, सर्वेक्षक, परिचर, नियन्त्रक आदि शब्द अजीब लगते थे। आज इन्हें सभी प्रयोग करते हैं।
एक बार आरम्भ में एक संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत दिवस मनाने गए तो वहां कोई नहीं जानता था कि संस्कृत दिवस भी कोई दिवस होता है। अब तो आलम यह है कि हर दिन कोई न कोई दिवस है। कभी बाल दिवस है, कभी वृध्द दिवस; कभी दिल दिवस है तो कभी आंख दिवस; कभी सास दिवस है तो कभी बहु दिवस। यह दिवस अब विश्व स्तर पर मनाए जाते हैं। तो हिन्दी दिवस मनाने में क्या हर्ज़ है। कम से कम हिन्दी वालों को तो यह दिवस जोश से मनाना चाहिए। भाषा का विकास व्यवसाय से जुड़ा है। हिन्दी यदि रोटी भी देने लगी है तो इसे धूम से मनाईए।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
अनुलेख : यह कृति अंतरजाल के सहयोग से लिखी गयी है | यह हमारी एवं कई और लोगों की सोच का मिश्रण है |
aapne acchi jaankari di hai..
ReplyDeleteor aapka ye priyas srahniiy or prernadayi hai.